कर्णधार / प्रताप नारायण सिंह
कितने दुस्साहसी हो तुम कि
अपनी झूठी आँखें
सच पर तरेर देते हो;
अपनी झूठी जबान से
सच को ललकार देते हो;
अपनी झूठी शक्ल से
सच को आईना दिखाने लगते हो
कितने निर्लज्ज हो तुम कि
अपने चेहरे की कालिख का
सफेद पताका फहराते हो;
अपने विश्वासघात का मंच
पूर्ण विश्वास से सजाते हो;
अपने छल की झोली
छद्म निश्छलता से फैलाते हो
कितने अमानुष हो तुम कि
शवों के ढ़ेर पर
सफलता के स्मारक बनाते हो;
चिताग्नि पर भी
रोटियाँ सेंकने लग जाते हो;
रक्तपान करके भी
कितनी सहजता से मुस्कराते हो
और हम !
कितने संकीर्ण और स्वार्थी हैं
कितने मूर्ख और उन्मादी हैं
कितने विवश और विकल्पहीन हैं
कि बार बार
तुम्हारे दुस्साहस
तुम्हारी निर्लज्जता
और तुम्हारी अमानुषता पर
विजय-मुहर लगाते हैं
और बार बार
तुम्हें अपना कर्णधार बनाते हैं