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कर्णावलम्बि कम्पित कुंडल स्वेदाम्बु-सिक्त मनसिज-मथिता / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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कर्णावलम्बि कम्पित कुंडल स्वेदाम्बु-सिक्त मनसिज-मथिता.
लिपटती लता-सी सीत्कृत वलयित स्कंधारोहण अभिलषिता ।
तुम कोटि-काम-चेष्टा-चंचल द्रुत कुञ्ज-तिमिर में गए समा।
बाँहों में केसरिया दुकूल का शेष रह गया कोर थमा।
श्लथ-कुंतल-कुसुम-सुरभि-मूर्छित मन के हो गए विमुग्ध हिरन ।
क्या याद न उडुगन-खचित निशा के लिए दिए अगणित चुम्बन ?
आ जा कृपणा के धन ! विकला बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकालने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥२५॥]