भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कर्त्तव्य / हरे राम सिंह
Kavita Kosh से
अभी तू यहीं कहीं थी -
पास में
और लुटा रही थी
अपने नीले गले से रस माधुरी।
मैं सावधान सिपाही
चौकस
संगीन ताने
दुश्मन की टोह ले रहा था कि
तू नज़रों के सामने झिलमिला उठी।
तेरी आँखों के तिलों पर
नज़रें थिर कर
जैसे ही- तुझे चूमने को बढ़ा कि
एक कड़कती हुई अवाज़
सर्द वादियों में गूँज गई
और मैं चौकन्ना
अनुशासित सिपाही की तरह
सतर्क हो गया
संगीन साधे।