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कर्मयोग / कविता मालवीय
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आत्मसाक्षात्कार की लड़ाई है-
इन्द्रिय भोग से निर्वृति!
सारे द्वंदों से मुक्ति!
राग और क्रोध से विरक्ति!
इच्छाओं की तुष्टि में सख्ती!
सिर्फ एक सत्ता से भावाभिव्यक्ति!
पर मैं!
सरसों के खेत और तितली के रंगों में,
इश्क संजीदा होने पर नज़रों के फंदों में,
आसमान में आकार बनाते परिंदों में,
नवजात शिशु के पहले रुदन के छंदों में,
मोहग्रस्त हूँ
भावों की या प्रशासन की अव्यवस्था पर
क्रोध ग्रस्त हूँ
क्योंकि मैं बोधग्रस्त हूँ
हर उस शख्स की आँखों में
वह सत्ता विराजमान है
जहां अगले के लिए कुछ करने का भान है
उसकी इस कायनात पर मेरा दिल
बाकायदा कुर्बान है
पर आत्मसाक्षात्कार!
अभी भी मेरी वहां अटकी जान है
क्योंकि मैं कर्मरत हूँ