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कर्म असार / शब्द प्रकाश / धरनीदास
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कोटि गऊ है दान, सींगि सौवर्ण मढ़ावै। गज तुरंग रथ साजि, विप्र निज कन्ध चढ़ावै॥
तहलहात लखराँव, प्रवल पोखरा खनावै। तुला तुला वै दँह, नेह करि गंग अन्हावै॥
योनि जन्मि फल पाइहै, पढ़ि पुरान पुनि रैन दिनु।
धरनी धर्म अनेक करि, मुक्ति न आतम-राम विनु॥16॥