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कर्म का संगीत / ज्ञानेन्द्रपति

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कपड़े पछींटता हुआ आदमी

अपने अनजाने संगीतकार बन जाता है

संगीत में मस्त हो जाता है

कर्म का संगीत धीरे-धीरे बन जाता है संगीत का क्रम


धुल जाता है कपड़े का देहाकार दुख

मन तक निखर जाता है

तब कभी मद्धिम आवाज़ में कहता है कपड़ा--

बहुत हुआ

छोड़ो भी मुझे

तुम्हें कोई काम करना है या नहीं पता नहीं

मेरे आगे उज्ज्वल भविष्य है

पसीने की महक वाला