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कर्म की धरती प्यासी है! / राधेश्याम ‘प्रवासी’

साधना के बरसो बादल
सृजन सागर से श्रम जल ले,
स्वप्न की नीड़ों के नीचे
कर्म की धरती प्यासी है !

चढ़ाये कितने तार गये मिलाये कितने गये सितार,
न फिर भी वीरानों में बजी बहारें लेकर मेघमल्हार,

आज भी जीवन पर छाई,
मूक बेबसी उदासी है !

ध्वंस से माँग रहा निर्माण आज भी है जीवन का दान,
मुक्ति का पाकर के वरदान अभागा रोता है इन्सान,

दैन्यता की सीमा में घिरी,
मनुजता अब भी दासी है !

कंस की कारा में कश्मीर भूमि देवकी रो रही है,
न जाने कितने शिशुओं को खो चुकी और खो रही है,

न वृज में रच पायेगा रास,
सँवरिया बना ‘प्रवासी’ है !