कर्म में धर्म का ध्यान देते चलो / लाखन सिंह भदौरिया
धर्म की स्वर-ध्वजायें उड़ाओ नहीं,
कर्म में धर्म का ध्यान, देते चलो।
विश्व रोता है, ईमान जिन्दा नहीं,
धर्म का ज्ञान है, ध्यान जिन्दा नहीं,
लाश अपनी स्वयं ढो रहा आदमी,
साँस चलती है, इन्सान ज़िन्दा नहीं,
उठ रहा है धुआँ बढ़ रही है घुटन,
साँस रोके खड़े साधना के चरण,
उक्त वातावरण के लिए कौन-सा?
मुक्ति-वरदान लाये हो देते चलो।
शांति के गीत गाना बड़ा ही सरल,
क्रानित के स्वर जगाना, बड़ा ही सरल,
कर्म कुरु क्षेत्र में कूदना ही कठिन,
वाक् जौहर दिखाना, बड़ा ही सरल,
कर उठे व्यंजना, शुचि गिरा कर्म की,
शान्ति के मर्म की, क्रान्ति के धर्म की,
चित्त डोले नहीं, शब्द बोलें नहीं,
कर्म में वेद व्याख्यान देते चलो।
धर्म धारा गया है हृदय में सदा,
वह उतारा गया है क्रिया में सदा,
सिर्फ व्याख्यान से धर्म फैला नहीं,
धर्म पीकर जिया ज़िन्दगी की सुधा,
धर्म कहता है तुम धैर्य धारण करो,
शान्ति से विघ्नसारे निवारण करो,
धर्म देता नहीं भीरुता को जगह,
शौर्य का, शक्ति का दान देते चलो।
मंच से क्रान्ति की घोषणायें हुईं,
शब्द से शानित की व्यंजनायें हुईं,
क्रान्ति आयी नहीं, शान्ति ठहरी नहीं,
मन्दिरों में बहुत प्रार्थनायें हुईं,
ज़िन्दगी से जगें क्रान्ति चिनगारियाँ,
आत्मा से खिलें, शान्ति फुलवारियाँ,
पूर्वजों के चरित की दुहाई न दो,
प्रज्वलित स्वर्ण, पहचान देते चलो।
क्या हुआ साथ कोई तुम्हारे नहीं,
आत्म-विश्वास की शक्ति हारे नहीं,
चाँद सूरज अकेले जले जा रहे,
रोशनी दे सके हैं, सितारे नहीं,
एक आगे चला, भीड़ पीछे चली,
एक दीपक जलाता है दीपावली,
तुम घना देखकर थरथराओ नहीं,
नव किरण के धनुष वाण लेते चलो।
जो कि सूने क्षणों में सहारा बनें,
डूबते के लिए जो किनारा बनें,
हर भटकती नजर को मिले रास्ता-
घोर अँधियार में ज्योति-धारा बनें,
हारती साँस को दे सकें चेतना,
जो उठे पाँव को दें, नयी प्रेरणा,
मंज़िलों को छुयें गीत को गुनगुना,
हर अधर को मधुर गान देते चलो।
तुम जहाँ पर जियो धर्म जीने लगे,
तुम सुधा बाँट दो, विश्व पीने लगे,
साथियों की यहाँ बाट जोहो नहीं-
प्यार दो हर दुखी को कि सीने लगे,
अश्रु पोछों किसी के तनिक आह पर,
धर्म उतरे धरा पर नया रूप धर,
वेद की मधु ऋचायें भुलाओ नहीं,
टूटती साँस को प्राण देते चलो।