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कर-बिनु कैसे गाय दुहिहैं हमारी वह / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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कर बिनु कैसे गाय दुहिहैं हमारी वह,
पद-बिनु कैसे नाचि थिरकि रिझाइहै ।
कहै रतनाकर बदन-बिनु कैसें चाखि,
माखन बजाइ बैनु गोधन गवाइहै ॥
देखि सुनि कैसें दृग-स्रवन बिनाही हाय,
भोरे ब्रजवासिनि की बिपति बराइहै ।
रावरौ अनूप कोई अलख अरूप ब्रह्म,
ऊधौ कहो कौन धौ हमारे काज आइहै ॥46॥