भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कर गई कम वो नज़र / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कर गई काम वो नज़र, गो उसे आज देखकर.
दर्द भी उठ सका नहीं,रंग भी उड़ सका नहीं.

तेरी कशीदगी में आज शाने-सुपुर्दगी भी है.
हुस्न के वश में क्या है और,इश्क़ के वश में क्या नहीं.

इससे तो कुफ्र ही भला, जो है इसी जहान का.
ऐसे खुदा से क्या जिसे फुर्सते-मासिवा नहीं.

वो कोई वारदात है, जिसको कहें कि हो गई.
दर्द उसी का नाम है जो शबे-ग़म उठा नहीं.

याद तो आये जा कि फ़िर,होश उड़ाये जा कि फ़िर.
छाने की ये घटा नहीं,चलने की ये हवा नहीं.

देख लिया वहाँ तुझे,दीदा-ए-एतबार ने.
हाथ को हाथ भी जहाँ,सुनते हैं सूझता नहीं.

कौलो-क़रार भी तेरे ख़्वाबो-ख़याल हो गये.
वो न कहा था हुस्न ने इश्क़ को भूलता नहीं.