कर दिया ज़ार-ए-ग़म-ए-इश्क़ ने ऐसा मुझको / मरदान अली ख़ान 'राना'
कर दिया ज़ार-ए-ग़म-ए-इश्क़<ref>प्रेम में दुःख की अधिकता</ref> ने ऐसा मुझको
मौत आयी भी तो बिस्तर पे न पाया मुझको
कभी जंगल कभी बस्ती में फिराया मुझको
आह! क्या-क्या न किया इश्क़ ने रुस्वा<ref>बदनाम</ref> मुझको
दुश्मन-ए-जाँ हुआ दरपर्दा<ref>अप्रत्यक्ष रूप से</ref> मेरा जज़्बा-ए-इश्क़<ref>प्रेम का जज़्बा</ref>
मुँह छुपाने लगे वो जानके शैदा<ref>आशिक़</ref> मुझको
रोज़ रौशन हो न क्यूँकर मेरी आँखों में सियाह<ref>काला/कालापन</ref>
है तेरे गेसू-ए-शब-रंग<ref>काले बाल</ref> का सौदा<ref>पागलपन/दीवानापन</ref> मुझको
एक परी-रू<ref>परी जैसी</ref> की मुहब्बत का मैं हूँ दीवाना
न परी का, न किसी जिन्न का है साया मुझको
रोज़-ओ-शब शोख़ ने क्या-क्या न दिखाए नैरंग<ref>जादू</ref>
रुख<ref>चेहरा</ref> दिखाया कभी गेसू-ए-चलीपा<ref>घुँघराले बाल</ref> मुझको
दिन भले आए तो अ'अदा<ref>दुश्मन</ref> सबब-ए-खैर<ref>ख़ैरियत की वजह</ref> हुए
बद-दुआ ने किया अग्यार<ref>ग़ैर/विरोधी लोग</ref> के अच्छा मुझको
फ़ख्र से बज़्म-ए-बुताँ<ref>बुतों की महफ़िल</ref> में वो कहा करते हैं
प्यार कुछ रोज़ से अब करते हैं 'राना' मुझको