भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कर रहा हूँ अभी सफ़र तन्हा / गोविन्द राकेश
Kavita Kosh से
कर रहा हूँ अभी सफ़र तन्हा
मिल गयी है मुझे डगर तन्हा
ख़्वाब में मैं उतर गया उनके
क्यों रहे मुंतज़िर नज़र तन्हा
वो मिलें तो गले लगा लूँ मैं
हो न पाता कभी ग़ुज़र तन्हा
घर यहीं अब बसा लिया जाये
दिख रहा इक यहाँ शजर तन्हा
यूँ तो राकेश भी निसार उस पर
बोल भी दे मिले अगर तन्हा