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कलई / तरुण
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कलईसाज़
कर लेता है बरतन ठीकरे इकट्ठे
गिरस्तियों के घरों के बाहर दे-दे कर आवाज।
पतीला फूटा हो, काना हो
कनकटा-कनफटा हो, दाना पुराना हो
कलई से चमका कर बख्शता है नाज़!
चली धौंकनी, घिसा गया राँगा,
आग पर बरतन को सँडसी से टाँगा,
अंगारे दहकते रहे लाल-
राँगे का, साफ़ी का था कमाल!
तैयार हुआ-पानी में पडत्रते ही
आवाज हुई-छन्न-
फटीचर भी जैसे (ठस भले ही हो)
कुर्सी पर बैठते ही-
आवाज करने लगता है-खन्न-खन्न!
इसमें कोई नहीं जी कुछ चक्कर-
कंकर ही तो होते हैं शंकर!
1981