भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कलभी उठलै ठुट्ठोॅ ठार / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
Kavita Kosh से
अनचोके पछिया पर भेलै पुरवा के हुमची केॅ वार
कलभी उठलै ठुट्ठोॅ ठार! कलभी उठलै ठुट्ठोॅ ठार!!
अबतक छेलै निपट समय में रुकलोॅ कोनो ध्यानी रं
मधुर वासना के हिलकोरा लहरी उठलै पानी रं
क्षण सें आगू डेग धरै छै वर्त्तमान ने बारंबार!
कलभी उठलै ठुट्ठोॅ ठार!
विजय वसन्तोॅ केॅ पतहार पर आशा सबल निराशा पर
अजगुत सिद्ध खेलाड़ पँहुचलै नवजीवन के पाशा पर
हरलै सब टा दाव पुरनका हकलाबै छै जार-बेजार!
कलभी उठलै ठुट्ठोॅ ठार!
नित भोरे रसवन्तीं चूनै महुआ माँती-माँती केॅ
दूर बाँसुरी पर चरबाहाँ टेरै निठुर सँगाती केॅ
अपना-अपनी रूप रचाबै में उस्तोॅ-विस्तोॅ संसार!
कलभी उठलै ठुट्ठोॅ ठार!