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कलम उठती है / संतोष श्रीवास्तव
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कलम उठती है मेरी
कि जालिम हुकूमत
बाज आ जाए
कि देखे सरहदों पर खून
और खलिहानों में आहें
कलम उठती है मेरी
कि बिजली कौंध जाए
वो पल भर का उजाला
साफ दिखला दे वह मंजर
कि लौटी हैं
जवानों के बिना बस वर्दियाँ
ये वर्दी है कि बख्शा जिसने
हमको चैन का आलम
भरोसा हम को सौंपा
दे के आहुति जवाँ तन की
वहीं पर थम गईं सपनों की
सारी मखमली राहें
वहीं पर थम गई कुछ और
जीवित आस और साँसें
वहीं पर थम गई
लिखते हुए स्याही कलम की