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कलम की खोली / कुमार विजय गुप्त

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यहीं पर कहीं गुम हो गयी है कलम की खोली

जेब के उपर यही तो एक दीख रही थी
कभी पहाडी के पीछे उभरते बाल अरुण की तरह
कभी तालाब पर खडी कमल कली की तरह
कभी दीवार फांदने की फिराक में किसी शरारती बच्चे की तरह
तो कभी दीखती थी
डूब रहे किसी आदमी के आवाज देते हाथ की तरह

बटन के उपर जब खेासी जाती जरा तिरछी
ते लगता मानो पर्दे की ओट लेकर झॉंक रही हो
केाई शोख लडकी

जैसे संसद के अंदर सत्ता
जैसे खोपडी के अंदर दिमाग
जैसे झूठ के अंदर कोई सच
खोली में महफूज थी कलम की नोक
और नोक में सुरक्षित विचार की धाराएँ
जैसे धरती के अंदर जल प्रबाह... आग लावा

खोली थी तो आराम फरमा रही थी
देह के भीतर देह
जैसे म्यान के अंदर कोई तलवार शानदार

खोली के भीतर दुबकी नहीं थी
केाई शुतुरमुर्गी संस्कृति
बल्कि इसी के सहारे जेब में खुंसी थी कलम
और आहिस्ता आहिस्ता आत्मसात कर रही थी
हृदय का संबेद
फेफडों का स्पंदन
देह की उष्मा ऊर्जा

खोली थी तो सीने पर सुशोभित था तगमा
तो आग्रह थे आभार थे और थे आकस्मिक संबंध

वह जबकि मात्र एक खोखली खोली थी
गुम गयी तो शेष कलम रह गयी
कितनी निसंग कितनी अकेली कैसी दर बदर
मानो ताज क्या गया
छिन गया तख्त जाता रहा आश्रय
कितना निरीह हो गया प्रतापी सम्राट

हाँ तो बंधुओ
यदि आपमें से किन्हीं को मिल जाये खोली
तो निःसंकोच मॉंग ले जाइएगा
शेष कलम की आधी अधूरी देह दुनिया भी!