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कलरवों के नीड़ पर / रामगोपाल 'रुद्र'
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कलरवों के नीड़ पर जो वज्र औचक आ गिरा है,
आसमाँ हैरान है यह गूँजती किसकी गिरा है?
काल तो समझा कि अबकी फ़ैसला होकर रहेगा,
इस क़यामत में किसी का घोंसला क्योंकर रहेगा!
ज़िंदगी की आन, लेकिन, फिर कहीं से कूकती है
देखना अतंक, विटप यह फिर हरा होकर रहेगा!
साज फूलों क यही होगा, कुहासा जो घिरा है!
आसमाँ हैरान है, यह गूँजती किसकी गिरा है?
फिर अमृत उच्छ्रित करेंगे फिर अरुंतुद स्मृति-बाण मेरे,
प्रकट सारस्वत सुधा के घट बनेंगे गान मेरे;
उच्छूवसन घन को फिर हरित-कूजित करेंगे प्राण मेरे;
सत्य कल का है, अभी जो स्वप्न आँखों में तिरा है,
आसमाँ हैरान है, यह गूँजती किसकी गिरा है?