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कलाकृति,आत्मविस्मृति और प्रकृति-3 / अजित कुमार

प्रकृति

उजड़ा, अन्तहीन पथ ।-
जिसपर कोई कभी नहीं भटका था ।
मैं जब उसपर चला,
मुझे मालूम हुआ-
कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना,
गुलदानों में लगे गुलाबों से
अपने मन को छलना ।
होगा ।
कुछ तो होगा ही ।
पर उन सबसे यह भिन्न ।
यही इस वन-पथ पर
खोया-खोया रह,
बिना किसी उद्देश्य भटकना ।

हर नन्हे जंगली पुष्प पर,
हर पंछी की विकल टेर पर
काफ़ी-काफ़ी देर
अटकना ।