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कला / विमल राजस्थानी

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मान पिता की आज्ञा, माता का वध किया परशु ने
खुली न मुट्ठी, परशु ने छुटा,ऋषि-सुत व्यग्र,विवश-से
तीर्थ-तीर्थ भटके, माता के वध का पातक ढ़ोते
मिली प्ररेणा-बह्म-कुंड में क्यों न कलुष को धोते
पहुँचे ऋषि कैलाश, किया स्पर्श कुंड के जल का
क्षण में क्षय हो गया मातृ-वध पाप बली के बल का
चमत्कार यह देख विलक्षण ऋषि ने किया विचार
लाभन्वित हो क्यों न कुंड के जल से यह संसार
काटा पर्वत, धार कुंड से फूट धरा पर आयी
लोहित कहीं, कही वह धारा बह्मपुत्र कहलायी
परशुराम ने शाप-मुक्त हो, अर्पित किया प्रणाम
ले कुठार उतरे रण-भू में, सुलग उठा संग्राम
काटा शीश, भूमि पर फेका जो भी आया आगे
जीवन टूटे बली क्षत्रियों के ज्यों कच्चे-धागे
छप्-छप्-छप् कुठार चलता था यह चमका,वह दमका
छिपा बादलों में रवि, सह पाया न तेज आनन का
श्मशान बन गयी धरा, थी तेज परशु की धार
हुई मेदिनी शून्य क्षत्रियांे से अष्टादश बार
भरे पाँच शोणित के हृद, फिर किया पितृ-तर्पण था
युग स्तब्ध था, रक्तांजलियों का अपूर्व अर्पण था
हुए पितृ-गण परमतृप्त, प्रेमाश्रु अमित बरसे थे
कल्पावधि से इसी रक्त-तर्पण के हित तरसे थे
शांत हुआ प्रतिशोध, परशु को फेंका सिन्धु-लहर में
निकल पड़े स्वाभाविक मुद्रा में, निर्माण -डगर में
केरल, कोंकण दो प्रदेश बस गये जुझारू श्रम से
लगे फूटने कला-विटप ऋषि-सुत के श्रम-सीकर
शिल्प-कला का चरमोत्कर्ष हुआ कोंकण में ऐसा
नहीं विश्वकर्मा को था सुलभ दैव से वैसा
मूर्तिकलामें जग-प्रसिद्ध थी मथुरा भी कुछ ऐसी
चर्चा में थी वह भी त्रिभुवन में कोंकण के जैसी
मूर्तिकार कोंकण से एक बसा आ कर मथुरा में
होड़ लगी, लघु कौन, बड़ा है कौन परा, अपरा में
कोंकण के उस शिल्पी की मथुरा में धूम मची थी
कहीं बुद्ध, तो कहीं कृष्ण-राधा, तो कहीं शची थी
पत्थर को तराश, आकृति जीवन्त गढ़ी थी ऐसी
स्वयम् विश्वकर्मा भी यदि चाहे तो गढ़े न वैसी
लगता है प्रतिमाओं को लख-अब बोली, तब बोलीं
रत्नों से भर दी पारखियों ने शिल्पी की झोली
एक नहीं, दो नहीं सहस्त्रों सजी मूर्तियाँ मनहर
चर्चा थी उस मूर्तिकार की घर-घर, डगर-डगर पर
जिसने भी देखा विस्मय से भरा, विमुग्ध हुआ था
लगा-स्वयम् जीवन ने अपने हाथो उन्हे छुआ था
लख कौशल छेनी का जन-गन धन्य कहता था
कला-सिन्धु-लहरो में अविरल गति से अविरल बहता था
मूर्ति-मूर्ति में शिल्पी-कर छवि प्राण फूँक देते थे
हुलसित नृप, सिंहासन से उठ, हृदय लगा लेते थे
कजरारी आँखो का काजल श्याम मेघ से लेता
माथे पर बिन्दी, सूरज को छोटा कर, घर देता
श्याम लटे लहराती जैसे रात हो गयी दिन हो
स्वेद-विंदू माथे से झरते ज्यों एत्तों पर मोती
नारी प्रतिमा का निखार लख मधुर गुदगुदी होती
रंग-विरंगी दुर्लभ प्रतिमाओं से कक्ष सजा था
दिगिन्त में मूर्तिकार का डंका अजय बजा था
पंक्ति-बद्ध हो कला-पारखी आते ही रहते थे
कमल-पँखुरियों पर अलियांे-सा छाते ही रहते थे
नगरवधू का विरह नहीं अब उतना साल रहा था
मूर्तिकार के आने तक उर जिसको पाल रहा था
दिन तो जैसे-तैसे देख मूर्तियाँ, कट जाते थे
किन्तु, रात होते ही बरबस अश्रु उमड़ आते थे
कौंध-कौंध जाती थीं स्मृती में रातें रसवन्ती
कर्ण-गुहा में गुंजित हाती रहती जैजैवन्ती
स्वर्ण-घुँघरुओं की मृदु छम्-छम्, प्रिय आलाप रसीला
मंचालोक नयन के आगे नर्तित नीला-पीला
इन्द्रजाल छाया-प्रकाश का, विस्मित करने वाला
हृदय तरंगित करने वाला, पुलकन करने वाला
वासव के पाँवो की थिरकन रास रचा देती थी
स्वर-लहरी दिशि-दिशि मछा कर, धूम मचा देती थी
वायु-पंख पर चढ़ जब मृदु स्वर तैर-तैर जाते थे
दूर-दूर से कला पुजारी खिंचे चले आते थे
कैसे शांति मिले, मन कैसे रैन काट पायेगा
मूर्तिकार तो बस, दिन में चैन बाँट पायेगा