भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कलियों के होंट छूकर वो मुस्करा रहा है / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
कलियों के होंट छूकर वो मुस्करा रहा है
झोंका हवा का देखो क्या गुल खिला रहा है.
पागल है सोच मेरी, पागल है मन भी मेरा
बेपर वो शोख़ियों में उड़ता ही जा रहा है.
अपनी नज़र से ख़ुद को देखूं तो मान भी लूं
आईना अक्स मुझको तेरा दिखा रहा है.
हर चाल में है सौदा, हर चीज़ की है क़ीमत
रिश्वत का दौर अब भी उनको चला रहा है.
बुझता चिराग़ दिल में, किसने ये जान डाली
फिर से हवा के रुख़ पे ये झिलमिला रहा है.
पहचान आज पूरी होकर भी है अधूरी
कुछ नाम देके आदम उलझन बढ़ा रहा है.
बरसों की वो इमारत, अब हो गयी पुरानी
कुछ रंग-रौगनों से उसको सज़ा रहा है.