भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कलि-कलि / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1
अछि नमस्कार,
अपनेक चरण में बार बार।
साकार तथा ओ निराकर॥
2
हे देवि! धन्य,
सुखदा जग में के एहन अन्य?
निद्रारि, चोर-रिपु, जागरण-
करबा में सब दुख छथि नगण्य॥
3
संज्ञा कलि कलि,
अपनेक विरह में कर मलि मलि।
पछताबथि विषयोन्मत्त, फिरथि-
सब कली कली लग अलि कुल अलि!॥
4
हम बड़ विपतेँ,
सेवक जगतारिणि! विकल मतेँ।
अछि एके ‘‘कलि’’ सँ ई प्रभाव
अपने दू ‘‘कलि-कलि’’ करब कते?
5
जन रहै मस्त,
अपनेक सुयश रवि हो न अस्त।
सब महग जगत मे भेल वस्तु
अपने दुख हारिणि! रही सस्त॥
6
हो सुप्रचार,
जब जन मिलि करता शुभ विचार।
अपनेक दया जौं बनल रहै
तँ ऽ सड़ि सड़ि बनता सब अँचार॥
7
के छथि विपक्ष,
डाक्टर हकीम के वैद्य दक्ष,
जे करथि महौषधि प्रबल प्रतापी-
कलि कलि देवी केर समक्ष?
8
छी निर्विकार,
नहि सीखल अछि स्वागत प्रकार।
सब दोष क्षमब, नित दहिन रहब-
कवि ‘‘अमर’’ करइ छथि नमस्कार॥