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कली के प्रति / रामावतार यादव 'शक्र'
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बड़े सबेरे से उठ कलिके!
मना रही आनन्द अपार।
क्या पाया इस जग में आकर
तनिक बताओ तो सुकुमार!
रूप-रंग निज देख-देख कर
क्या तुमको अभिमान हुआ?
हरे भरे उपवन को लखकर
या तुम लुटा रही हो प्यार!
हँसना यहाँ मना है पगली, क्या न शूल ने बतलाया!
मोती ये झूठे ओसों के, क्या न किरण ने समझाया।