कलेऊ / रेखा चमोली
आखिरी बस जा चुकी होगी
कोई दो घण्टे पहले
आना होता तो
अब तक आ चुके होते
बाबा या बड़ा भाई
एक घण्टे के पैदल पर ही तो है
उनका गांव
दो महीने से लगातार
राह देख रही है वह
अब तो बच्चों से भी
कहते नहीं बनता कि
तुम्हारे नाना या मामा आएंगे
लाएंगे तुम्हारे लिए
कनस्तर भर अरसे, च्यूड़े
और भी कई सारी पोटलियां
बांध कर देगी नानी
जिसमें होंगी थोड़ी-थोड़ी दालें
भट्ट, गहत, छेमी, उड़द
और होगी थोड़ी-सी
तुड़के के लिए फरण, हींग
मां की पुरानी धोती से बनी
पोटलियां संभाली रहती है उसने
कई दिनों तक
जब-जब खुद लगती उसे मां की
उन्हीं में मुंह छिपा कर
रो लेती है थोड़ी देर
गांव की सारी बहु-बेटियां
बांट चुकी है कलेऊ
किसी ने अरसे बांटे
तो किसी ने लड्डू, मठरी
अब तो उसकी सहेलियां भी नहीं पूछतीं
कब आएगा तेरा भाई?
सास ने भी सुनाना शुरू कर दिया है
मन कई आशंकाओं से
भर उठता है उसका
कहीं कुछ.....।
कई दिनों से कोई रैबार भी तो
नहीं आया
ना..ना, सब ठीक होगा
वह मन ही मन मनौती मांगती
धार के ऊपर वाली देवी से
कमली के बापू घर होते तो
उन्हें ही भेजकर
कुशल-मंगल पुछवा लेती
हो सकता है भाई की दुकान पर
ज्यादा काम हो आजकल
और बाबा अब
ज्यादा चल-फिर भी नहीं सकते
वह सोचती जा रही है
और साथ ही साथ
करती जा रही है
घर के काम-काज
देखती जा रही है बार-बार
गांव की ओर आने वाले रास्ते को।