कलैण्डर की राह / ओमप्रकाश सारस्वत
मरु की गर्म माँग के बावजूद
बादल फिर जंगल में बरसा
हरियाली फिर चट्टानों ने ओढ़ी
घाटियाँ आसमान सिर पे उठाकर नाचती रहीं
पहाड़ खुश थे कि नया क्लैंडर बदलने तक
नदियाँ उनकी गंदगी धोती रहेंगी
और ये जड़ वृक्ष उनका कुछ भी नहीं उखाड़ सकते
बाढ़ हमें रात भर ठेलती रही
पत्थरों की भांति, पलट-पलट कर
हमारे पूरे अड़ियलपन के बावजूद
हमारी हड्डियाँ पानी करने को
हमारी समग्र चेतन के विरुद्ध
बाढ़ का यह भीषण अभियान था
हमने दाँतों के खोल भरवा लिए हैं
ताकि जब बीवी दाँत गिनने लगे
(कच्चे माँस पर टूट पड़ने से पहले)
तो वह,यह देखकर और भी जवान हो जाए
कि साबुतपन अभी मौजूद है
जवानी दाँतों की मजबूती का दूसरा नाम है
हर मौसम क्लैंडर की राह गुज़र जाती है
छहों : ऋतुएँ रखैल हो गई हैं ऐतवार के घर
ऐतवार नवाब हो गया है
मौसमः नारी के माहवारी लत्ते-सा सोख रहा है रस
सुबहः निचुड़ी हुई नौकरानी-सी आती है
फीकी हँसती हुई
चर की संभाल के लिए हर रोज़
मुन्ने की अम्माँ ने जिसे
बच्चों के पेशाब के लिए
सत्तर रुपएमें खरीदा है
नौकरानी और घरवाली में फर्क
सिर्फ बच्चोंके पेशाब को धार के
हाशिये जितना है
एक अल्मारी का तहखाना है
और दूसरी ड्राईंग टेबल का मेज़पोश
कशमकश गहरे तनाव
और बेहिसाब दर्द चुभ रहे हैं
(मेरी हँसी पे मत जाओ; यह घावों की धूप है)
राहत:यहाँ सड़कों पर मौसमी मुरम्मत की तरह
उपेक्षित ही रहते हैं होल्डर,
ट्यूबें और बल्ब
सब शहरे के अँधेरों में खप जाते हैं
शहर एक बहुत बड़ी मंडी है
जहाँ अंधेरों के आढ़ती
खरीदते हैं लाईट
थोक रेट पर, ब्लैक़ में
यहाँ सभ्य होने के लिए
चालाकी की ज़रूरत है
शराफ़त यहाँ सारी उम्र जीभ काटकर जीने का नाम है
या फिर बीवी की 'सुत्थण' बेचकर
तरक्की के दिन गिनने का
प्रजातंत्र यहाँ नगरपालिका की नालियों में बंद है
जिसमें देश की गंदगी बह रही है इज़्ज़त के साथ
अंदर ही अंदर
प्रगति के नाम पर
गुसलख़ाने से गंगा के मुहाने तक
चुपचाप
चौराहों पर स्वचालित बत्तियाँ
ज्अनतंत्र की वकालत में व्यस्त हैं,
तुम्हें सलीके से चलने की ज़हमत में
लाल-पीली हो रही है,
मेरे देश का यातायात
निर्देशों का अभ्यस्त है
इसका निजी बोध अस्त है
और ये चौड़ी सड़कें:
तुम्हारे जनाज़े को को रास्ता देने को तयार हैं
बशर्ते तुम एक अच्छे नागरिक बनके मरो
(अच्छे नागरिकों के लिए इस तरह की और भी
कई सहूलियात उपलब्ध हैं)
तुम अपने भवन के बाहर झाँको
देखो इस देश में पेट की आँते
सड़कों पर बिछ गईं हैं
स्वस्थ होने के स्वप्न में
धूल फाँक फाँक कर
जीने का भ्रम उन्हें मार रहा है
चालीस से पचीस मीटर लम्बी मौत
हर रोज़
मैं सुसंस्कृत होने की फिक्र में
त्रिशंकु को गया हूँ
गाँव और शहर के बीच
एक अविकसित कसबे-सा
एक छूटा हुआ,एक फँसा हुआ आदमी
मेरी आवश्यकता सिर्फ इतनी है
कि उगते सूरज क्ई धूप का एक टुकड़ा मुझे भी मिले
पर एक दुम हो कि
सूरज का सूरज ही
आसमाँ समेत अपनी ओबरी में बंद करने पर अड़े ही
फिर तुम्ही कहो
मैं उस प्रकाश को कैसे सराहूँ
जिसे मैंने देखा ही नहीं
हाँ, मैं तुम्हें गालियाँ जरूर बक सकता हूँ
मैं कृत्घन नहीं हूँ
तुम्हारा ऋणी हूँ
यह तहज़ीब मैंने तुम्ही से पाई है
मैं तुम्हारा मोहताज़ हूँ
अभी कल ही को बात है;
हम बैठे उन्नति के उपाय सोच रहे थे,
कुछ नुक्ते खोज रहे थे लाइन में आने के
तभी आज़ादी को सफेदी की तरह ओढ़े
कुछ वक्र मंद हँसते हुए
निजी अनुभव पर बोले थे,एक
मित्र !
उदार बनो
सकुचो मत
सारा दिन खाओ भर पेट
पर दांत साफ रखो
देखो कमेटी के नलकों का जल
सारे विटामिन नहीं दे सकता
फिर हमारे को रौंदता हुआ
चप्पल पर बूट की पर तरह कड़कता हुआ
फिक्सड पर छूट की तरह अकड़ता हुआ
छाया पर अँधकार-सा छाता हुआ
जाता हुआ
हमारी स्कीम के लट्ठे पर अधजली सिगरेट फैंकता हुआ
कह गया
स्सालो?
तुम कभी लीडर नहीं बन सकते