कल के लिए आज कर न ख़िस्सत शराब में / ग़ालिब
कल के लिये कर आज न ख़िस्सत शराब में
यह सू-ए ज़न है साक़ी-ए कौसर के बाब में
हैं आज कयूं ज़लील कि कल तक न थी पसनद
गुसताख़ी-ए फ़रिशतह हमारे जनाब में
जां कयूं निकलने लगती है तन से दम-ए समा`
गर वह सदा समाई है चनग-ओ-रबाब में
रौ में है रख़श-ए-उमर कहां देखिये थमे
ने हाथ बाग पर है न पा है रकाब में
उतना ही मुझ को अपनी हक़ीक़त से बु`द है
जितना कि वहम-ए ग़ैर से हूं पेच-ओ-ताब में
असल-ए शुहूद-ओ-शाहिद-ओ-मशहूद एक है
हैरां हूं फिर मुशाहदह है किस हिसाब में
है मुशतमिल नुमूद-ए सुवर पर वुजूद-ए बहर
यां कया धरा है क़तरह-ओ-मौज-ओ-हुबाब में
शरम इक अदा-ए नाज़ है अपने ही से सही
हैं कितने बे-हिजाब कि यूं हैं हिजाब में
आराइश-ए जमाल से फ़ारिग़ नहीं हनूज़
पेश-ए नज़र है आइनह दाइम नक़ाब में
है ग़ैब-ए ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद
हैं ख़वाब में हनूज़ जो जागे हैं ख़वाब में
ग़ालिब नदीम-ए दोसत से आती है बू-ए दोसत
मशग़ूल-ए हक़ हूं बनदगी-ए बू-तुराब में