कल चिंताओं से रात भर गुफ़्तगू की / लाल्टू
कल चिंताओं से रात-भर गुफ़्तगू की
बड़ी-छोटी, रंग-बिरंगी चिन्ताएँ
ग़रीब और अमीर चिन्ताएँ
सही और ग़लत चिन्ताएँ
चिन्ताओं ने दरकिनार कर दिया प्यार
कुछ और सिकुड़ से गए आने वाले दिन चार
बिस्तर पर लेटा तो साथ लेटी थीं चिन्ताएँ
करवटॆं ले रही थीं बार-बार चिन्ताएँ
सुबह साथ जगी हैं चिन्ताएँ
न पूरी हुई नींद से थकी हैं चिन्ताएँ।
वैसे सचमुच कौन जानता है कि
वैसे सचमुच कौन जानता है कि
दुख कौन बाँटता है
देवो-दैत्यों के अलावा पीड़ाएँ बाँटने के लिए
कोई और भी है डिपार्टमेंट
ठीक-ठीक हिसाब कर जहाँ हर किसी के लेखे
बँटते हैं आँसू
खारा स्वाद ज़रूरी समझा गया होगा सृष्टि के नियमों में
बाक़ायदा एजेंट तय किए गए होंगे
जिनसे गाहे-बगाहे टकराते हैं हम घर-बाज़ार
और मिलता है हमें अपने दुखों का भंडार
पेड़ों और हवाओं को भी मिलते हैं दुख
अपने हिस्से के
जो हमें देते हैं अपने कंधे
वे पेड़ ही हैं
अपने आँसुओं को हवाओं से साझा कर पोंछते हैं हमारी
गीली आँखें
इसलिए डरते हैं हम यह सोचकर कि वह दुनिया कैसी
होगी
जहाँ पेड़ न होंगे।