कल जो बात कही थी / बालस्वरूप राही
कल जो बात कही थी मैंने, आज् मुझे ही झूठी लगती।
तुमने प्रश्न किया जो लिखते, क्या वह अनुभव भी करते हो
रंग कल्पना का चमकीला या अपनी कृति में भरते हो
मैंने कहा कि कवि-वाणी तो बढ़ा-चढ़ा ही कहती है
केवल अतिरंजित भावुकता, सारे गीतों में रहती है।
कवि की भी अनुभूति सभी सामान्य जनों सी ही होती है
छंदों में बंध जाने पर ही, उसकी बात अनूठी लगती।
लेकिन अब जब तुम बैठी हो, मुझसे दूर कई योजन पर
एक अनोखा दर्द प्राण को तोड़ रहा बाहों में भर कर
एक अजानी काली छाया, तिरती आती है लोचन में
एक विचित्र भाव सूनेपन का गहराता जाता मन में।
लगता है मेरे जीवन की अंतिम बेला पास आ गई
अंतर बोझिल बोझिल सा है काया टूटी टूटी लगती।
पत्र लिखा जो मैंने तुमको, रखा हुआ मेरे सिरहाने
लिख डाले हैं मैंने उसमें, शब्द कई जाने-पहचाने
बीती आधी रात और लिखते-लिखते अविराम थका मैं
पर जो कहना चाहा उसका अंश मात्र भी कह न सका मैं।
मेरी छाती पर जो भार बना वह कब हल्का हो पाया
शब्द चुके पर जो पीड़ा कहनी थी छूटी छूटी लगती।
अब जाना हर कथन बहुत लघु मानव मन का कथ्य बड़ा है
सब अभिव्यक्ति कलाएं छोटी हैं, जीवन का सत्य बड़ा है
क्या ऐसे भी शब्द कहीं हैं, जिनमें पूरा भाव समाये
जिनको दर्द सौंप कर अपना अंतर कुछ हल्का हो जाये?
मैंने तो जब जब शब्दों में अपनी व्यथा बांधनी चाही
वाणी तभी तभी हारी है, भाषा रूठी रूठी लगती।
कल जो बात कही थी मैंने, आज मुझे ही झूठी लगती।