भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कल तक तो यह तन था / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
कल तक तो यह तन था
तन में
मान, ठिठोली
प्रणय कोप के
रंग गुड़हल ज्यों
लाल, सहेली
एक निमिष में
टूट गया सब
ना तन अब, ना
तन में सोंधी
सहज सुलगती
आँच, सहेली
राधा नहीं, कह राख, सहेली