भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कल तक था नाम जिसका बदनाम बस्तियों में / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कल तक था नाम जिनका बदनाम बस्तियों में
चलते हैं आज उन के एह्काम बस्तियों में

हर सू मचा हुआ है कुहराम बस्तियों में
तह्ज़ीब हो न जाये नीलाम बस्तियों में

घोला था ज़हर किस ने कोई न जानता था
तेगे़४ खिंची हुई थीं इक शाम बस्तियों में

जिन के नफ़स नफ़स में तख्ऱीब बस रही है
ऐसे हलाकुओं का क्या काम बस्तियों में

कोई न हो शनासा कोई न जानता हो
आओ कि जा बसें हम बे-नाम बस्तियों में

सूने पड़े हैं मन्दिर, वीरान मस्जिदें हैं
धूमें मची हैं क्या क्या बदनाम बस्तियों में

सब शोरिशें हों 'रहबर` नापैद बस्तियों से
अमन-ओ-अमां का फैले पैगा़म बस्तियों में