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कल तुम्हारे यहाँ जो तमाशा हुआ / अमरेन्द्र
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कल तुम्हारे यहाँ जो तमाशा हुआ
अपने घर में ही मेरा है देखा हुआ
वह वही था वही रूप आदत वही
मुझको ही और होने का धोखा हुआ
सबने पढ़-बेपढ़े फेंक ही तो दिया
क्या हुआ सबके हाथों का पर्चा हुआ
अब जरूरत है बस दूध को धोने की
जो मिला, दूध का था वो धोया हुआ
वह चला था तो सीधे सही चाल से
मेरे सीने से लगते ही तिरछा हुआ
रात भर ही नहीं सोया गुनता रहा
किसलिए उस जगह मेरा चर्चा हुआ
कल यही दिल गले में था ताबीज-सा
आज पीछे गली में है फेंका हुआ
इतना परिचय ही काफी है अमरेन्द्र का
जब हिली कोई छत उसका पाया हुआ।