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कल पौ फटते ही / वीक्तर हिगो / हेमन्त जोशी

कल, पौ फटते ही, जब खेतों में बिखरेगा तेज़ प्रकाश
आऊँगा, बेटी ! मुझे ज्ञात है तेरे मन की आस
गहन तमों के भीतर होकर, कर पर्वत को पार
दूर रहूँ मैं तुझसे, वहन अब होता नहीं यह भार ।

स्मृतियों के मन में खोया, मैं बढ़ता ही जाऊँगा
नयन नहीं कुछ देखेंगे, शब्द न कोई सुन पाऊँगा
एकाकी, अनजान बढूँगा, पीठ झुकाए बाँधे हाथ
और उदास दिवस लगेगा मुझको जैसे निस्तब्ध रात ।

अस्ताचल में रवि की लाली का जाल देखूँगा नहीं
न दूर गोदी में नावों के झुकते असंख्य पाल
पहुँच समाधि पर तेरी मैं, करूँ समर्पित तुझे वहीं
हरे-हरे कुछ शूल पर्ण और फूल कुछ पीले-लाल ।

मूल फ्राँसीसी से अनुवाद : हेमन्त जोशी