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कल बल कै हरि आरि परे / सूरदास

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रागबिलावल

कल बल कै हरि आरि परे ।
नव रँग बिमल नवीन जलधि पर, मानहुँ द्वै ससि आनि अरे ॥
जे गिरि कमठ सुरासुर सर्पहिं धरत न मन मैं नैंकु डरे ।
ते भुज भूषन-भार परत कर गोपिनि के आधार धरे ॥
सूर स्याम दधि-भाजन-भीतर निरखत मुख मुख तैं न टरे ।
बिबि चंद्रमा मनौ मथि काढ़े, बिहँसनि मनहुँ प्रकास करे ॥

भावार्थ :-- कलबल करते (तोतली बोली बोलते हुए) श्याम मचल रहे हैं। (दही मथने का मटका पकड़े वे ऐसे लगते हैं ) मानो नवीन रंग वाले निर्मल नये समुद्र (क्षीरसागर) पर दो चन्द्रमा आकर रुके हों । जिस भुजा से (समुद्र मन्थन के समय) मन्दराचल को, कच्छप को, देवताओं तथा दैत्यों को एवं वासुकि नाग को धारण करतें (सबको सहायता देते) मन में तनिक भी डरे (हिचके) नहीं, वही भुजाएँ आज आभूषणों के भार से गिरी पड़ती हैं (सँभाली नहीं जाती) उन्हें गोपियों के हाथ के आधार पर (गोपी की भुजा पर) रखे हुए हैं । सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर दही के मटके के भीतर अपने मुख का प्रतिबिम्ब देखते हुए, माता के मुखके पास से अपना मुख हटाते नहीं हैं । ऐसा लगता है मानो (क्षीरसागर का) मन्थन करके दो चन्द्रमा निकाले गये हैं, बार-बार हँसना ही मानो चन्द्रमा का प्रकाश हो रहा है ।