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कल भी मैं सफ़र में था,आज भी सफ़र में हूँ / शलभ श्रीराम सिंह
Kavita Kosh से
कल भी मैं सफ़र में था, आज भी सफ़र में हूँ
वक़्त के लबों पर हूँ, उम्र की नज़र में हूँ
महफ़िलों की बातें क्यों ,मंज़िलों के चर्चे क्या
आपके शहर में हूँ, अपनी रहगुज़र में हूँ
अपनी यकताहाली का ज़िक्र मैं करूँ किससे
अक्स तो नहीं हूँ मै फिर भी चश्मेतर में हूँ
तिनका मत समझियेगा मुझको बहरे आलम का
आदमी हूँ हस्ती की आख़िरी सतर में हूँ
अपने मिलने वालों से ऐ शलभ यह कहना है
बुलबुलों के नगमों में तितलियों के पर में हूँ
रचनाकाल : 30 जुलाई 1984, भोपाल
शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।