भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कल मरा बच्चा आज कैसे रोपूँ धान / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
हर जगह की मिट्टी जैसे क़ब्र की मिट्टी
पाँव के नीचे पड़ जाती जैसे उसी की गर्दन बार-बार
उखड़ ही नहीं पाता बिचड़ा अँगुलियां हुई मटर की छीमियाँ
कुछ दिनों तक चाहिए मुझे पोटली में अन्न
कुछ दिनों तक चाहिए मुझे हर रात नींद
कुछ दिन तो हो दो बार नहान
पीपल के नीचे से हटाओ पत्थरों और पुजारियों को
फूटी हुई शीशियों और जुआरियों को
ना ही मिला कोइ अपना कमरा
मगर पाऊँ तो बित्ता-भर ज़मीन जहाँ रोऊँ तो गिरे आँसू
बस पृथ्वी पर किसी के पाँव पर नहीं ।