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कविजी / कैलाश झा ‘किंकर’

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1.

भारतीय रेल जेकाँ लेट पर लेट करै,
कहियो कवि केॅ सखी पत्नी नै बनिहऽ।
घर सँ निकलथौं तेॅ सबकुछ भूलि जैथौं,
एहन पति के कोनऽ कहलऽ नै सुनिहऽ॥
बारे बजे रात धरि कविता केॅ खोजैवाला,
जंजीरो बजाबै चुपचाप मुँह मुनिहऽ।
घरेॅ जरूरत के कोनो नै फिकिर करै,
एहनऽ पति सँ आस छोड़ि सिर धुनिहऽ॥

2.

दोसरा के घरबा में टी.वी. फ्रिज देखि-देखि
कवियो के पत्नी के मऽन ललचाय छै।
दोसरा के पिया के दुतल्ला घर बनलै,
हमरऽ पति केॅ देखऽ कविते सोहाय छै॥
कुच्छु-कुच्छु लिखि-लिखि रोजे-रोज हँसै-गाबै,
हमरऽ सलाह नोनछाहे तेॅ बुझाय छै।
भनई कैलाश कवि पत्नी केॅ करजोरि,
भावै छै कवि केॅ जेना जिनंगी बिताय छै॥

3.

धरबा में कविजी केॅ केतनऽ बीमारी रहै,
कविता सुनाबै लेली दूर-दूर जाय छै।
धीया-पूता कविजी के पलै बिना बाप जेकाँ,
ओकरा लेली त बस सब कुछ माय छै॥
दुनियाँ लेॅ ढेर उपदेश लिखि-लिखि बाँचै,
डिबिया के पेनी में अन्हरिये बुझाय छै॥
दोसरा के ओठ पर हँसी-खुशी बाँटै वाला,
अप्पन प्रिया केॅ रोजे-रोज वें सताय छै॥

4.

लक्षमी सँ बैर करी सरोसती भजैवाला,
नाम लेली यश लेली जिनगी बिताय छै।
कोऽ पत्र-पत्रिका में कविता छपै तेॅ देखऽ-
ओकरे खुशी में कवि झूमि-झूमि जाय छै॥
नवका कवि सँ लेॅ केॅ बड़का कवि केॅ देखऽ-
कविता में घर-बार सब बिसराय छै।
मान सम्मान लेली कलम सँ जूझैवाला,
दवा-दारू बिना देखऽ दुनियों सँ जाय छै॥

5.

सूरज के जोत जहाँ पहुँच नै पाबै वहाँ,
कवि के नजर रस खोजी-खोजी लाबै छै।
मरूभूमि लागै जहाँ नागफनी-नागफनी,
कविता के फूल तेॅ वहाँ भी वें उगाबै छै॥
जिनगी सँ हारलऽ ऊबलऽ जे पथिक हुअेॅ-
ओकरो तेॅ नैन में सपना वें सजावैं छै॥
देश कहाँ देश लागै साहित्य-सुगंधि बिना।
‘किंकर’ कवि के गुण झूमि-झूमि गाबै छै॥