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कविता-4 / शैल कुमारी

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सागर ही तो फैला था मेरे चारों ओर
और स्पंदित हो, उमड़ रहा था मेरे रोम-रोम में;
दूर-दूर खला आकाश
फुदकती गिलहरियाँ
नीम की निम्बौली
कँटीली चंपा की गमक
पेड़ों के पत्तों से झिर-झिर आती धूप
सब कुछ मुक्त था निर्बंध
मैं साहस करता रहा
सबको अपने सीमित दायरे में समेट लूँ
सागर की लहरें, तट से टकराती नहीं
टूट-टूट कर, ऊँची गर्जना करके ढह जाती
फिर आती, फिर जाती, फिर आती...
वनपाखी हँसते थे, टहोकते थे
आपस में आपा-झापी करते थे
लेकिन
सागर अपने में लीन था
खोया था
लहरों से मुक्त था
लहरों में जीकर भी
और कुछ था जो टूट गया मेरे भीतर
एक अंतःसलिला फूट पड़ी मेरे अंदर।