भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कविता-6 / शैल कुमारी
Kavita Kosh से
ज़्यादा कुछ नहीं
मैंने तो सिर्फ़ इतना चाहा था
अपने दड़बे के मुहाने से दिखने वाले आकाश को
भरपूर देख सकूँ
हाथ, पैर, गर्दन में पड़ी ज़ंजीरों को बिना तोड़े ही
अपने छोटे-छोटे पंखों से उड़कर
सुनहली धूप, रूपहली चाँदनी
एक बार जी भर कर पी लूँ,
सामने दिखने वाले हरे भरे पेड़ की डालियों पर
फुनगियों पर
फुदक-फुदक कर
उसकी पहचान कर लूँ
पर
दड़बे का मुहँ बंद कर दिया गया
पंखों को कुतर कर बेकार कर दिया गया
और हरा-भरा पेड़
वह तो न जाने
मेरी या अपनी ही आग में झुलस
हमेशा के लिए ठूँठ बन गया
मेरी चाहत के गुनाह को
न जाने किस तराज़ू से मापा गया है
सच
जितनी बड़ी सजा मुझे मिली है
इतना तो कभी मैंने जीवन भी नहीं माँगा था
ज़्यादा कुछ नहीं
मैंने तो सिर्फ़ थोड़ा-सा चाहा था।