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कविता: चार (औरत होना...) / अनिता भारती
Kavita Kosh से
अपने सपने
अपनी जान
अपने प्राण
स्पर्श कर अपने आप को इक बार
फिर देख
औरत होना
कोई गुनाह नहीं...!