कविता एक स्नेहिल क्रीड़ा है / राजकुमार कुंभज
कविता एक स्नेहिल क्रीड़ा है
जिसमें अपार दु:ख है
प्रेम है, प्रेम की पीड़ा है
भीतर, बहुत भीतर की बात है ये
कुछ-कुछ सुलगते ज्वालामुखी जैसी
तब भी अगर पाबंदी है भूकंप की
तो कविता की अर्थ दिशा किस ओर ?
काम, क्रोध, मद, लोभ, नहीं है
प्रेम....सिर्फ प्रेम
जिसमें लिपटा है सर्प-चंदन का आशय
ये पदचाप किसकी है ?
पता नहीं मृत्यु की है या जीवन की ?
कविता एक स्नेहिल क्रीड़ा है
इस क्रीड़ा में
क्रीड़ा करते-करते मर जाऊँगा मैं भी तो
फ़र्क नहीं कुछ
मेरा मन रघुनंदन नहीं
क्यों बैठाऊँ किसी भी स्त्री को
अग्नि-कुंड में
और क्यों कहलाऊँ पर्याप्त मर्यादित ?
क्षमा करें, प्रभु !
मर्जी है आपकी, करें ना करें ?
मैं क्या करूँगा, नहीं जानता हूँ अभी
लेकिन तय मानिए
कि अगर नहीं निकल सकी स्त्री
अग्नि-कुंड से बाहर
तो मुझसे बुरा न होगा कोई
कवि हूँ, करता हूँ क्रीड़ा ।