कविता का मर जाना / अर्चना कुमारी
कविता
वही शब्द
भाव पृथक
भटक कर लौट आती हैं
नहीं खटखटाती अर्गला
उस पहचानी चौखट का भी
जहां कभी नववधू सा स्वागत हुआ
और फिर निकाला भी गया
मृत शरीर की तरह
मानो रह गयीं कुछ देर और
तो दुर्गन्ध फैलाएंगी...
इन कविताओं की नियति है
अतृप्त ही भटकते रहना
या तृप्ति लिख नहीं पाई
अंजाने में ही ढोती रही
कुछ गर्भस्थ कल्पनाएं
कुछ नवजात सपने
एक जीवन में पलना
और एक पालना
समय के क्रूर पंजों में
असमय ही वार्धक्य को प्राप्त हुई कविताएं
और अवश ताकती रहीं छीनी हुई लाठी
गम्भीर अट्टाहास में
करूण क्रंदन की विभीषिका
पर अक्षम थी कविता...
शब्दों की उतान और वितान में
गुञ्ज रहा था मन
अमृत घट को उल्टा रखकर
जबरदस्ती विष लिखना
इतना भी सरल नहीं होता
कविताओं का उद्गम प्रेम
सुना है शाश्वत हुआ करता है
और अक्षय भी
फिर यों प्राप्त हुआ क्षय को
या चन्द्र की पूर्णता के साथ
डूब रहा तिमिर में
या निकलेगा पुन: एक पक्ष बाद
अपनी स्निग्धता के आलिंगन में लिप्त करने भाव
आत्मा विदग्ध है
अजन्मी संतानों का शव लिए गोद में
विस्मृति की पगडंडियों पर
ढूंढ रही श्मशान...
हर रास्ता ख़त्म हो जाता वहीं
रो भी नहीं सकती दुहिताओं की मृत्यु पर
न बहा सकती उन्हें किसी नदी में
न दाह सकती आग में
न दफना सकती मिट्टी तले
इनके हिस्से मुक्ति का कोई अंश नहीं आया
अकाल मृत्यु को प्राप्त नौनिहालों
तुम्हारा मर जाना
नियति नहीं थी
करुंगी संचार तुममें प्राण का
अपने कण कण अश्रु और बूंद बुंद शोणित से
लिखकर प्रेम कविताएं
तुम लौट आना....खिलखिलाना
थामकर चलना पिता की ऊंगलियां
छोड़ देना मेरे हृदय में पदचाप अपने
सृष्टि में सुर घोलना घुंघरुओं से...
तुम्हारा जाना असंयत था....
आना नियत और संयत होगा...
मैं प्रतीक्षा में हूं...।