कविता की दुनिया / राजकिशोर राजन
मेरे सामने एक-दो नहीं, कई रास्ते थे
परन्तु मैंने पगडण्डी ही पकड़ी
वहाँ एक मनुष्य होने के नाते
चल फिर सकता था मनुष्य की तरह
जी सकता था उन लोगों की दुनिया मे
जो पराजित हो गए द्यूतक्रीड़ा में
झोपड़ियों, जंगलों और गाँवों में रह गए महदूद
उनके पुरखे भी कभी छाँट दिए गए होंगे नगरों से
यह तर्क दे कर कि, जंगलों को जलाकर
मैदान बनाया हमने, फिर गाँव, फिर नगर बसाया हमने
तुम्हारा है हमारे नगरों में प्रवेश निषिद्ध
मेरी देह धूल से सनी
पैरों में भरी है बिवाईयाँ
जमी है पपड़ी होंठो पर
सभ्य नागर जन देख लें मुझे तो
प्रथमदृष्टया समझेंगे असभ्य ही
और मेरी कविताएँ, ठीक मेरी तरह
न उनमें अलंकारिक भाषा, न चमत्कार
न कलात्मकता का वैभव,
न बौद्धिकों के लिए यथेष्ट खुराक
तो मैं क्या करूँ !
यहाँ, कहाँ, तितली पकड़ने जाऊँ
जहाँ पेट के लिए आदमी हलकान
ग़रीबी, लाचारी और चिन्ता से गायब मुसकान
माथे पर रख हाथ, भविष्य को विचारते हैरान
खैर छोड़िए !
आप अपनी दुनिया में ख़ुश रहें
मैं अपनी दुनिया में मगन हूँ
गोकि कविता की दुनिया इतनी बड़ी है
जिसमें समा सकती है हमारी-आपकी तरह
सैकड़ों-हज़ारों दुनिया।