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कविता के इर्द-गिर्द / मनीषा जोषी / મનીષા જોષી

भाषा

किसी पक्षी के पाँव में रिंग पहनाकर
उसे उड़ा देने वाले पक्षीविद् की तरह
मैं खोजती फिरती हूँ भाषाओं को ।

मैं इन्तज़ार करती हूँ
उस पक्षी के वापस आने का
जो ले आएगा
एक ऐसी भाषा
जो होगी सबसे क्लिष्ट ।

कुछ सरल संवाद अब
मुमकिन हो पाएँगे सिर्फ़
सबसे जटिल भाषा में ।

अनुवाद

मेरी भाषा में
कुछ ऐसे शब्द हैं
जो तुम्हारी भाषा में नहीं हैं ।

तुम्हारी भाषा में
कुछ ऐसे कवि हैं
जो मेरी भाषा में नहीं हैं ।

एक बूढ़ी औरत नहीं चाहती
अपना गाँव
अपना घर
छोड़कर कहीं जाना
पर ले जा रहे हैं उसे
उसकी खटिया समेत
एक गाँव से दूसरे गाँव तक ।

सम्मेलन

कवि-सम्मेलनों में इकट्ठे हुए कवि
एक-दूसरे को सुनते कम
और देखते हैं ज़्यादा —
इतना ज़्यादा कि दूसरे की
सारी अधूरी कविताएँ भी
देख लेते हैं अपने हिसाब से ।

ख़ुद की बारी आने पर
जब वे खड़े होते हैं
तब हाथ में माइक लेकर
पहले अक्सर पूछते हैं —
क्या सबको सुनाई दे रही है मेरी आवाज़ ?

तब साथी कवियों में से कोई नहीं
और श्रोताओं में से भी
बहुत कम ही देते हैं जवाब!
पर कवि फिर भी शुरू कर देते हैं —
अपना कविता-पाठ ।

श्रोता

कविता-पाठ करते वक़्त
मेरे गले में
अचानक से प्यास उठती है ।

डूब जाती है आवाज़
जैसे गिर पड़ी हो
नदी के ऊपर से उड़ रहे किसी पक्षी के
मुँह में पकड़े हुए शिकार-सी ।

मैं पेश करती हूँ कुछ कविताएँ
सिवाय उसके !

मेरी वह एक प्रिय कविता
जो मर रही होती है उस नदी में ।

कविता श्रवण के लिए बैठे हुए चेहरे
जब मैं देखती हूँ तो मुझे लगता है
ये वही लोग हैं
जो देख रहे हैं नदी के तट पर खड़े
मुझे डूबते हुए
और कुछ नहीं कर रहे
बचाने के लिए ।

पुरस्कार

कोरे काग़ज़ नहीं बचे मेरे पास ।

मैं लिखती हूँ अब कविता
अपने हाथ-पाँव पर
और फिर देखती हूँ अपने हाथ-पाँव को
कि क्या वे भी मुझे देख रहे हैं ?

जब न रहा शरीर का कोई अंग ख़ाली
तब अब उल्टे हाथ से
लिखने लगी हूँ अपनी पीठ पर भी ।

मेरे बाज़ार जाते वक्त
आप जो देख लेते हैं वे सब
मेरी खुली पीठ पर लिखी गई कविताएँ हैं
जिन्हें अभी-अभी पुरस्कृत किया गया है ।

मैं जी रही हूँ अब
पुरस्कृत कविताओं के शरीर में ।