कविता के खेत में तारो का सच / कुमार कृष्ण
तुम जब भी बात करते हो
तुम्हारे शब्दों में बोलने लगता है पालमपुर
जिसे लोगों ने
चाय की पत्तियों में पूरा पी लिया है
तुम जितनी बार तारो की तकलीफ़ में
अपना बचपन ढूंढ़ते हो
मुझे आती है उतनी ही बार
एक बड़ी कविता कि नर्म कोंपलें
तुम्हारे चारों ओर
तुम्हारी कविता-
पालमपुरी पौधों का रौंदा हुआ उच्छ्वास है
जिसे बिना किसी मुहर के
अनिल बरवाल हर रोज़ तस्दीक करता है
तुम बिना किसी शहादत के
अपने गाँव से लाए हो एक धौलाधारी सच
यह राजधानी है दोस्त
यहाँ सिर्फ़ राजा-महाराजा का सच ही सच होता है
तुम्हारे और तुम्हारे तारो के सच को सुनने की फुर्सत
किसी को नहीं
अनिल बरवाल जब भी सुनता है तुम्हारी कविता
खामोश हो जाता है पूरी तरह
वह जानता है-
चावल की भाषा और कविता कि भाषा के बीच
जो आदमी खड़ा है
लोग उसे 514 नम्बर से क्यों जानते हैं
इस समय जब-
विपक्ष की कुर्सी बुनने में व्यस्त है तुम्हारा पालमपुर
कुछ लोग उसे तारो के दूध से नहीं
चाय की ख़ुशबू से जानने लगे हैं
वैसे दूध और चाय के पौधों का रिश्ता
उतना ही पुराना है जितना कुर्सी और टाट का
ऐसे समय में मुझे तुम्हारा
टाट की मरम्मत में चले जाना अच्छा लगता है
यही वक़्त है जब कविता का खेत
तुम्हारे तमाम औजारों की प्रतीक्षा में है।