कविता के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
ऐ, कहो,
मौन मत रहो!
सेवक इतने कवि हैं--इतना उपचार--
लिये हुए हैं दैनिक सेवा का भार;
धूप, दीप, चन्दन, जल,
गन्ध-सुमन, दूर्वादल,
राग-भोग, पाठ-विमल मन्त्र,
पटु-करतल-गत मृदंग,
चपल नृत्य, विविध भंग,
वीणा-वादित सुरंग तन्त्र।
गूँज रहा मन्दर-मन्दिर का दृढ़ द्वार,
वहाँ सर्व-विषय-हीन दीन नमस्कार
दिया भू-पतित हो जिसने, क्या वह भी कवि?
सत्य कहो, सत्य कहो, वहु जीवन की छवि!
पहनाये ज्योतिर्मय, जलधि-जलद-भास
अथवा हिल्लोल-हरित-प्रकृति-परित वास,
मुक्ता के हार हृदय,
कर्ण कीर्ण हीरक-द्वय,
हाथ हस्ति-दन्त-वलय मणिमय,
चरण स्वर्ण-नूपुर कल,
जपालक्त श्रीपदतल,
आसन शत-श्वेतोत्पल-संचय।
धन्य धन्य कहते हैं जग-जन मन हार,
वहाँ एक दीन-हृदय ने दुर्वह भार--
’मेरे कुछ भी नहीं’--कह जो अर्पित किया,
कहो, विश्ववन्दिते, उसने भी कुछ दिया?
कितने वन-उपवन-उद्यान कुसुम-कलि-सजे
निरुपमिते, सगज-भार-चरण-चार से लजे;
गई चन्द्र-सूर्य-लोक,
ग्रह-ग्रह-पति गति अरोक,
नयनों के नवालोक से खिले
चित्रित बहु धवल धाम
अलका के-से विराम
सिहरे ज्यों चरण वाम जब मिले।
हुए कृती कविताग्रत राजकविसमूह,
किन्तु जहाँ पथ-बीहड़ कण्टक-गढ़-व्यूह,
कवि कुरूप, बुला रहा वन्यहार थाम,
कहो, वहाँ भी जाने को होते प्राण?
कितने वे भाव रसस्राव पुराने-नये
संसृति की सीमा के अपर पार जो गये,
गढ़ा इन्हीं से यह तन,
दिया इन्हीं से जीवन,
देखे हैं स्फुरित नयन इन्हीं से,
कवियों ने परम कान्ति
दी जग को चरम शान्ति,
की अपनी दूर भ्रान्ति इन्हीं से।
होगा इन भावों से हुआ तुम्हारा जीवन,
कमी नहीं रही कहीं कोई--कहते सब जन,
किन्तु वहीं जिसके आँसू निकले--हृदय हिला,--
कुछ न बना, कहो, कहो, उससे क्या भाव मिला?