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कविता के बाद / नरेश गुर्जर

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आसमान से अधिक
मैं आभारी हूँ उस धरती का
जिसके होने से बची हुई है
आसमान की कल्पना

समंदर से ज्यादा
शुक्रगुज़ार रहा हूँ
उन नदियों का
जिन्हें छू कर लौटने पर
पानी-पानी हुआ हूँ

और ईश्वर से अधिक
मैं उस स्त्री के आगे
होना चाहता हूँ नतमस्तक
जिसने मेरे कमजोर पक्ष को भी
अपने आलिंगन मे भर लिया
और फिर से लौटने का साहस
लौटा दिया मुझे

हो सकता है कि
दुनिया की भाषाओं के अनुसार
कुछ शब्दों के कुछ और अर्थ होते होंगे
पर मैं अभी अभी देख कर आया हूँ
धरती पर एक ऐसी नदी
जिसका नहीं है
कोई भी जिक्र
किसी मानचित्र पर कहीं
और उस नदी में एक स्त्री
जिसे नहीं जानता कोई
उसके नाम से
और अभी-अभी जाना है
उस नाम का एक और अर्थ
जिसकी नहीं है
कोई भी व्याख्या
किसी भी शब्दकोश में

स्त्री
एक तुम ही हो
जिसने मुझे
कविता के बाद
सबसे अधिक
चकित किया है!