कविता के लिए / गोविन्द माथुर
मैं शब्द ढूंढता हूँ
कविता लिखने के लिए
शब्द हैं कि पकड़ में नही आते
दौड़ते फिरते हैं पूरे घर में
कमरे से चांदनी में
चांदनी से इकदरी में
इकदरी से दूसरे कमरे में
फिर कूद जाते हैं चौक में
शब्द समझते हैं कि
मैं उन्हे बांध लूंगा
बन्द कर दूंगा डायरी में
मैं शब्दों के साथ
कूद जाता हूँ चौक में
शब्द सड़क पर दौड़ जाते है
मैं थक कर
कमरे में बैठ जाता हूँ
पर हताश नहीं होता
जानता हूँ
शब्द कहीं नहीं जाएगें
शहर की कुछ खास-खास
गलियों के चक्कर काट कर
उन्हें यहीं आना होगा
सीढ़ियों में आहट होती है
मैं आँखे मूंद कर
निश्चल बैठ जाता हूँ
शब्द आहिस्ता-आहिस्ता
बिना कोई आहट किए
एक-एक कर
चित्र बन कर कमरे में
आना शुरू कर देते हैं
एक थकी बूढ़ी
गुस्सायी खीजभरी आवाज़
टकराती है मेरे कानों से
मैं सहम जाता हूँ
ओह! मेरे पितामह तुम
तुमने कभी हमें प्यार नही किया
ये सच है कि तुम्हारे एक मात्र
जवान पुत्र की मृत्यु हो गई थी
तुम अशक्त थे पौत्र-पौत्रियों का
पालन-पोषण करने में
अपनी हताशा मासूम पीठों
पर जमा दिया करते थे
नहीं-नहीं चाहिए
मुझे ये शब्द, मैं उठ कर
दूसरे कमरे में भागता हूँ
वहाँ भी शब्द
आकृति लिए हुए हैं
ओह! मेरी माँ तुम
क्या तुम्हारी आँखो में
सदैव आँसू ही रहेगें
तुम्हारी चीख़ें गले में
फँसी रहेंगी
कुछ कोमल-कोमल शब्द
मासूम पीठ पर
महसूस होने लगते हैं
हाँ, यही शब्द चाहिए
मुझे मेरी कविता के लिए
मैं लपक कर उन शब्दों को
आँखो में बन्द कर लेता हूँ
अपनी कविता के लिए