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कविता के लोकतन्त्र पर राजा का हमला / कुमार कृष्ण

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तुम रहते हो वहाँ
जहाँ रहते हैं तरह-तरह के देवता
आते हैं साल में एक बार शहर
रथ में सवार लोगों के कन्धों पर
देखते हैं बाज़ार, बाज़ार की रौनक

तुम रहते हो वहाँ जहाँ हैं बेशुमार नदियों के घर
जहाँ रोहतांग की रिस्ती हुई तकलीफ़ पर
मस्ती में झूमते हैं यायावर

तुम रहते हो वहाँ जहाँ उम्र भर
भेड़ लड़ती है मौसम के ख़िलाफ़
तुम रहते हो वहाँ जहाँ बुनकरों की तकलीफ़ पर
नहीं रोते देवता

देवता नहीं जानते भूख की भाषा
निर्धनता कि वर्णमाला
वे तो हैं राजा
राजा जानता है बस फरमान जारी करना
वह जानता है दण्ड की परिभाषा

काश! उसे भी सिखाया होता किसी ने-
साँप-सीढ़ी का खेल
समझ में आती उसे पराजित होने की पीड़ा

तुम रहते हो वहाँ जहाँ बर्फ कटे पांव उगाते हैं-
जौ के सत्तू
माँ सहलाती है प्रतिदिन मनोठी की पीड़ा
जब किस्से चलते हैं बिल्ली के पांव पर
तब ठांगी तोड़ते, ऊन कातते भी
कट जाती है पूरी रात

गणेश गनी तुम रहते हो बादलों के घर में
बर्फ की बुआ के पास
तुम सीख कर आए हो माँ के गर्भ से
मौसम के खिलाफ़ लड़ना
मुझे पूरा यक़ीन है तुम सिखा सकते हो राजा को-
सांप-सीढ़ी का खेल
तुमने सीखा है बचपन से
बिना पुल के नदी पार करना
कर चुके हो पार अब तक कई नदियाँ
तुम्हारी कविता में सुनाती हैं नदियाँ-
तरह-तरह के किस्से
गुनगुनाती हैं धरती का गीत
नदियाँ पृथ्वी की पाठशाला हैं
नदियाँ हैं जीवन का राग
सूख रही हैं नदियाँ धीरे-धीरे
सूख रहा है जीवन
सुख रही है कविता

तुम जानते हो
किस्सों को पट्टू में छुपाने की कला
जानते हो काग़ज़ के जहाज़ उड़ाना
तुम जानते हो
शब्दों की, भाषा कि मरम्मत करना
सच कहूं
तुम कविता के कारीगर हो
सोचो मेरे दोस्त थोड़ा ध्यान से सोचो-
राजा को सांप-सीढ़ी का खेल
सिखाने के बारे में
सोचो कि कविता कि पाठशाला
खुलने का समय हो गया है
सोचो
देवताओं के फरमान के बारे में
कि चाँद पर घर बनाने का समय आ गया है
चलो चलें मलाणा कि थोड़ी-सी आग लेकर
बसाएँ कविता का नया लोकतन्त्र।