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कविता को उगने दो अपने भीतर / सुतिन्दर सिंह नूर

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कविता को उगने दो अपने अंदर
एक वृक्ष की तरह
और वृक्ष को करने दो बातें
हवा से, धूप से,
बरसते पानी से
तूफ़ानों से ।

वृक्षों के कोटरों में
पंछियों को खो जाने दो
चिहु-चिहु करने दो
और घोंसले बनाने दो ।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरजमुखी के फूल की तरह
जो आकाश की ओर देखता है
महकता है, विकसित होता है
आज़ाद हवाओं में साँस लेता
किसी का मोहताज नहीं होता
और वीरान जंगलों में
कोसों दूर जाते कारवां को भी
हाँक मार लेता है ।

कविता को उगने दो अपने अंदर
सूरज की तरह
जो कुछ ही क्षणों में
वनों, तृणों, दरियाओं
और समुन्दरों पर फैल जाता है ।
सीने में अग्नि संभाले
ब्रह्मांड से बातें करता
किरण दर किरण
निरंतर चलता चला जाता है ।

कविता को उगने दो अपने अंदर
चांदनी की तरह
जिसके मद्धम-मद्धम सरोद में
हमारी रूहें तक भीग जाती हैं
क्षितिज तक फैली
शांत गहरी रात में
दूधिया किरणों के जाम
दिल के अंधेरे कोनों तक
एक साँस में पी जाते हैं हम ।

कविता को उगने दो अपने अंदर
वृक्ष की तरह
सूरजमुखी की तरह
सूरज की तरह
चांदनी की तरह!