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कविता जी / अजित कुमार

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कल मैंने कविता को लिखा नहीं
कल मैंने कविता को जिया

बहुत दिनों बाद
लौटकर घर आए बच्चों के साथ
बैट-बाल खेला,
पहेलियाँ बूझीं
कहानियाँ सुनीं-सुनाई
चाट खाई

वह सब तो ठीक था
और
अपनी जगह ठीक-ठाक रहा
लेकिन यह ख़याल
कि इस तरह
मैंने कविता को जिया,
अपनी कविता जी को
कुछ ख़ास पसन्द नहीं आया ।

मुँह फुलाकर वे जा बैठीं
पुरानी पत्रिकाओं के ग़ट्ठर में
जिन्हें मैंने दो-छत्ती में धर दिया था
ताकि बच्चों की उछल-कूद के लिए
घर में तनिक जगह तो निकले ।

बीते अनुभव से जानता हूँ —
छुट्टियाँ ख़त्म होंगी
बच्चे वापस चले जाएँगे
घोंसले में फैले तिनके समेटने के लिए
हमें छोड़कर

कैरम की गोटें
स्क्रैबिल के अक्षर
देने-पावने के ब्यौरे
क्रेन की बैटरी
जिन्हें हम सहेजेंगे ज़रूर

पर दो-छत्ती में रखी
पुरानी पत्रिकाएँ तो शायद
हमेशा के लिए
वहीं की वहीं रह जाएँगी

रूठी हुई कविता जी
मनुहार के बाद
या
उसके बावजूद
क्या पता ?
आएँ कि न आएँ !