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कविता में दरवाज़ा / कात्यायनी
Kavita Kosh से
और फिर वह कठिन
अँधकारमय समय आ ही गया
कुछ लोगों को जिसकी आशंका थी
और कुछ को प्रतीक्षा ।
तब बहुसंख्यक कविताएँ ऐसी थीं
जिनमें कोई दरवाज़ा नहीं था
या अगर था , तो बन्द था।
कुछ कविताएँ थीं
जिनमें दरवाज़ों की कामना थी
या स्मृतियाँ ।
कुछ कविताएँ ऐसी भी थीं जो
कहीं किसी दरवाज़े पर बैठकर
लिखी जा रही थीं।
खोजने पर यहाँ-वहाँ कुछ ऐसी
कविताएँ भी मिल जाती थीं
जो दरवाज़ों से बाहर थीं
सड़कों पर भटकती हुई
कुछ खोजती हुई
... शायद अपनी सार्थकता
या बनने की कोशिश करती हुई
एक विकल पुकार
जो बन्द दरवाज़ों को भेदकर
सोई हुई रूहों में
हरकत पैदा कर दे।
(26 जुलाई , 2017)